शिक्षा मन को खोलती है, पर हमेशा दिल को नहीं!

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ज्ञान की कीमत – कैसे आधुनिक शिक्षा मानव मूल्यों को समाप्त कर रही है — कई बार, सोचने की कला सीखते हुए हम महसूस करना भूल जाते हैं।”

यह विचार एक भीड़ भरी दुनिया में एक धीमे फुसफुसाहट की तरह गूंजता है — इस ओर ध्यान खींचता है कि कैसे हमारे समाज से भावनात्मक और सांस्कृतिक मूल्य धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं।

ज्ञान का युग, अपनापन का अंत

लोक टुडे न्यूज नेटवर्क

हेमराज तिवारी वरिष्ठ पत्रकार

एक समय था जब हर घर की आत्मा उसके लोग हुआ करते थे — प्रेम, अपनापन और एकता। परिवार, चाहे जितने बड़े हों, एक थाली, एक छत और एक दिल से बंधे रहते थे। उस समय औपचारिक शिक्षा दुर्लभ थी, परंतु व्यवहार से संस्कार सिखाए जाते थे।

आज, ‘प्रगति’ के नाम पर हमने शिक्षा को इस हद तक महिमामंडित कर दिया है कि उसने संवेदनशीलता और आत्मीयता को पीछे छोड़ दिया है। रिश्ते अब ‘देने’ पर केंद्रित हो गए हैं। अपनापन, जो बिना शर्त जुड़ाव का भाव था, अब एक प्रश्न बन गया है — “तुम मुझे क्या दे सकते हो?”

पढ़े-लिखे, लेकिन भावनात्मक रूप से खोखले

शिक्षा कभी आत्मबोध और सामाजिक समझ का माध्यम हुआ करती थी। आज यह भागने का रास्ता बन गई है — न आत्म से जुड़ाव, न समाज से।

संस्थाएं ज्ञान देती हैं, परंतु जीवन का विवेक नहीं। बच्चे को गणित सिखाया जाता है, लेकिन गुस्से को संभालना या प्यार को व्यक्त करना नहीं। हम प्रतियोगिता का मूल्य सिखाते हैं, सहयोग का नहीं। हम अक्ल को अंक देते हैं, लेकिन ईमानदारी को नहीं।

एक बच्चा गणित में कम नंबर लाए तो डांट पड़ती है, लेकिन यदि वह झूठ बोले या किसी बुजुर्ग का अपमान करे तो अक्सर अनदेखी होती है। ऐसे में हम कैसे भावनात्मक रूप से परिपक्व पीढ़ी की उम्मीद करें?

परिवारों का टूटना और शिक्षा का प्रभाव

विडंबना यह है कि जैसे-जैसे साक्षरता बढ़ी, रिश्तों की गहराई घटती गई। तलाक, वृद्धों की उपेक्षा, भाई-बहनों में दूरी और माता-पिता से अलगाव — यह सब पढ़े-लिखे समाज में आम हो गया है।

संयुक्त परिवार अब इतिहास हो गए हैं। यहां तक कि एकल परिवार भी डिजिटल दुनिया में खो गए हैं — सब एक घर में होते हुए भी अलग-अलग स्क्रीन में खोए रहते हैं। वाई-फाई से जुड़े हैं, दिल से नहीं।

हम अब व्यक्तित्व नहीं, बायोडाटा तैयार कर रहे हैं।

मूल्यहीन शिक्षा, एक तेज़ धार वाला चाकू

शिक्षा एक चाकू की तरह है — यदि यह विवेक के साथ हो तो रचनात्मक होती है, पर बिना मूल्य के यह घातक हो जाती है। आज का पढ़ा-लिखा इंसान अक्सर अहंकारी होता है। वह वही जानता है जो उसने किताबों में पढ़ा, लेकिन यह नहीं समझता कि एक अशिक्षित दादा जो सिखाता था — कि करुणा से बड़ा कोई ज्ञान नहीं और प्रेम से बड़ा कोई पुरस्कार नहीं।
सुनना, समझना और अपनाना — ये कला खो चुकी है

प्राचीन भारत के गुरुकुल सिर्फ ज्ञान केंद्र नहीं थे, वे मूल्य और संस्कार सिखाने वाले स्थान थे। शिष्य सेवा करते थे, विनम्र रहते थे, और समाज को कुछ लौटाने की भावना के साथ लौटते थे।

आज की शिक्षा ने आत्मकेंद्रितता को जन्म दिया है। हम बात ज़्यादा करते हैं, सुनते कम हैं। जानकारी बहुत है, लेकिन समझदारी कम। दोस्त बहुत हैं, लेकिन दोस्ती नहीं। हम संस्थाओं से जुड़े हैं, पर एक-दूसरे से नहीं।
शिक्षा जरूरी है, लेकिन वह हृदय को छूने वाली होनी चाहिए। वरना हम ऐसे पढ़े-लिखे समाज का निर्माण करेंगे, जहाँ रिश्ते सुविधाजनक होंगे, लेकिन सच्चे नहीं; जहाँ शब्द होंगे, पर संवेदनाएं नहीं; और जहाँ हम एक-दूसरे के पास होंगे, लेकिन फिर भी बहुत दूर।

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