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दलित छात्र की मौत की पूरी की पूरी स्क्रिप्ट को बदलने मे जुटा एक वर्ग !

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जयपुर ।यह सर्वविदित है कि स्कूल सरकारी हो, या प्राइवेट सभी स्कूलों में बच्चों और अध्यापकों के पानी पीने का अलग सिस्टम है । बच्चे जहां पानी की टंकी से पानी पीते हैं। वहीं टीचर्स के लिए अलग से पानी के लिए केन, मटके , वाटर कूलर, फ्रिज लगे होते हैं। टीचर्स को पानी पिलाने के लिए अधिकांश स्कूलों में चपरासी की व्यवस्था भी होती है। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी ही सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में टीचर्स को को पानी पिलाने का काम करता है।

टंकी की टोंटी इतने नीचे कैसे एक आदमी पी सकता है पानी

सरकारी स्कूलों में तो टीचर्स को पानी पिलाने के लिए चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी होते हैं। जो स्कूलों में लगे हुए वाटर कूलर या मटको से पानी पिलाते हैं। प्राइवेट स्कूल में भी बाईजी या चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी ही टीचर्स को पानी पिलाता है। दरअसल जालौर, सिरोही बाड़मेर जैसलमेर जोधपुर के ग्रामीण इलाकों में आए दिन इस तरह की घटनाएं सामने आती है। मारपीट के वीडियो भी खूब वायरल होते हैं ।इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि पश्चिमी राजस्थान में भेदभाव जैसी समस्या नहीं है। वहां रहने वाले लोगों की यह सब सहने की आदत बन चुकी है। अनुसूचित जाति वर्ग के लोग इसे अपना भाग्य समझते हैं, और वह अब इनसे बचने की कोशिश करते हैं ,लड़ने की नहीं । उन्हें पता है कि हमें रहना ही इनके बीच है तो लड़ कर भी क्या कर सकते है। यदि कभी किसने विरोध करने की कोशिश की तो उसे कुचल दिया जाता है। भले ही किसी दलित वर्ग के व्यक्ति की लड़ाई किसी दूसरे वर्ग के किसी एक व्यक्ति से हुई हो, लेकिन जब दलित पर हमला करना होता है, तो उस पर मिलकर सामूहिक तौर पर ही उस पर हमला करते हैं। जिसका मुकाबला करना उसके बूते की बात नहीं होती।

स्कूल मास्टर को बचाने और भेदभाव को झूठा साबित करने में जुटे कुछ लोग

सायला के सुराणा गांव के सरस्वती स्कूल की यह घटना 20 जुलाई की है ।जब बच्चे को मटके से पानी पीने पर स्कूल के संस्थापक छैल सिंह ने मारा । सिंह ने बच्चे से मारपीट की बात तो खुद ने स्वीकार की। उन्होंने पुलिस के सामने इस बात को कबूल की और जो एक वीडियो मृतक बच्चे इंद्र मेघवाल के पिता देवाराम मेघवाल ने वायरल किया था ।उसमें भी छैल सिंह ने इस बात को स्वीकार किया कि जो गलती हो गई ,उसे मैं मान रहा हूं ,अब गलती हो गई उसे ठीक नहीं किया जा सकता। मैं बच्चे का इलाज करा दूंगा और उसने बच्चे के इलाज के लिए डेढ़ लाख रुपए भी दिया। और परिवार को मुकदमा नहीं करने के लिए मना लिया गया। मृत बच्चे के परिजनों को भी यह लगता था कि बच्चा इलाज के बाद सही हो जाएगा ,तो उन्होंने मुकदमा नहीं कराया ।क्योंकि उन्हें पता था उन्हें गांव में रहना है। उन्हीं लोगों के बीच रहना है, मुकदमा करने से भी कोई फायदा नहीं होगा ।लेकिन जब बच्चे की मौत हो गई तब फिर उन्होंने मुकदमा दर्ज कराया। मुकदमा घटना के लगभग 23- 24 दिन बाद दर्ज हुआ।

मटके पर नौटंकी

बच्चे की मौत के बाद जब मामला सुर्खियों में छाया, तब तक स्कूल से ,स्कूल प्रशासन ने मटके- हटा दिए, लेकिन जहां पर मटके रखे रहते थे वह परिंडा अभी भी बना हुआ है। दरअसल जब लंबे समय तक जहां पर मटके रखे जाते है , वहां पर उसके निशान बन जाते हैं। इस स्कूल में भी कुछ लोगों ने जो इस पूरी स्क्रिप्ट को चेंज करने की कोशिश की, उन्होंने यह बात तो दिखा दी कि स्कूल में कोई मटका दिखाई नहीं दिया। यहां सिर्फ एक टंकी है सब उसी से पानी पीते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जैसा पत्रकार चाहता है ,वैसा ही दिखाने की कोशिश करता है। लेकिन कई बार वह चालाकी करते समय यह भूल जाता है कि सामने वाला भी दिमाग रखता है । यहां भी साफ तौर पर ऐसा ही नजर आ रहा है। मीडिया के कुछ साथी लगातार गला फाड़ फाड़ कर इस बात को कह रहे हैं, कि स्कूल मैं कोई मटका नहीं है । जिस मटके के कारण यह पूरा झगड़ा हुआ है, जिसके कारण एक मासूम की जान चली गई और अब आप पूरी की पूरी स्क्रिप्ट बदलने की कोशिश कर रहे हैं। यह तो आप अपने प्रोफेशन के साथ अन्याय नहीं कर रहे हो। अपराधी की कोई जाति नहीं होती है और अपराधी को सजा ही मिलनी चाहिए । यह हमारा प्रयास होना चाहिए । जो निर्दोश उसे सजा भी नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन किसी को भी सजा देने का काम न तो सरकार है और मीडिया का। सजा देने का काम कोर्ट का है। इसलिए कुछ बातें कोर्ट पर भी छोड़ देनी चाहिए। सबसे खास और बड़ी बात है यह कि क्या घटना के 25 दिन बाद जिस मटके के कारण यह घटनाक्रम हुआ है । जिसके कारण बच्चे की पिटाई हुई। क्या वह मटका वहां पर रखा रहेगा ? यह विचारणीय विषय है ,कि कभी किसी मर्डर करने वाले ने जिस लाठी , तलवार या रिवाल्वर से किसी की हत्या की हो क्या वह उन को साथ में लेकर घूमता है । या फिर गले में लटका कर रहता है । ऐसा ही स्कूल में मटके वाली घटना को लेकर भी थोड़ा विवेक से सोचने की जरूरत है। जब घटना ही मटके के कारण हुई है ,तो क्या स्कूल प्रशासन 25 दिन में भी उस मटके को नहीं हटाएगा या इंतजार करेगा, कि कब पुलिस आएगी और उसे गिरफ्तार करेगी । कब इस पर आंदोलन होगा ।अब मटके वाली घटना से जोड़कर इस पूरी कवायद को दिखाया जा रहा है कि स्कूल में इस तरह का कोई मटका ही नहीं था। सब लोग इस टंकी से पानी पीते हैं ।जिस टंकी से पानी पीना दिखाया जा रहा है ,जिस टंकी को दिखाया जा रहा है उस टंकी के जमीन से डेढ़ से 2 फीट की ऊंचाई पर ही टूटी लगी हुई है । डेढ़ से 2 फीट की ऊंचाई पर लगी टूटी से क्या 35 से 45 साल के सभी टीचर आसानी से पानी पी सकते हैं। छोटे बच्चों के अलावा सातवीं आठवीं क्लास के बच्चे को भी पानी पीने में परेशानी होती हो । जिन बच्चों की हाइट ज्यादा है उन्हें झुक कर पानी पीना पड़ता होगा ,तो ऐसी स्थिति में जो टीचर है, क्या वह सब पानी पीने के लिए वहां बारी-बारी से जाते होंगे। वह भी नीचे बैठ कर पानी पी सकते हैं ।ऐसी स्थिति बिल्कुल भी नहीं नजर आती है । वीडियो में टंकी और नल दिखा रहा है, वह खुद पत्रकार एक बार बैठ कर पानी पी कर दिखा दे तो मान जाएंगे। वाक्य में स्टाफ भी बैठ कर पानी पीता होगा । ऐसी कहानी घड़ी जा रही है कि सभी टीचर और स्टूडेंट इसी टंकी से और इसी नल से पानी पीते थे । कई पत्रकार गला फाड़ फाड़ कर दिखा रहे हैं और बताने की कोशिश करें कि गांव में किसी तरह का जातिगत भेदभाव नहीं होता है, सब समान्य है।

झूठ या सच?

सभी प्लांट खबरें करने वाले पत्रकारों ने मृतक छात्र इंद्र के 1 साथी राजेश से बातचीत की। 20 बच्चे बैठे हैं और उनमें राजेश खड़ा होकर आता है जिसे स्कूल प्रशासन ने पहले से रटा कर तैयार किया होता है। वह बोलता है कि मेरी और इंद्र की किताब को लेकर लड़ाई हुई थी । मास्टर जी ने दोनों को एक एक थप्पड़ मारा और उसके बाद में इंद्र कभी स्कूल नहीं आया । आगे क्या हुआ मुझे पता नहीं है। अपनी बात को सच साबित करने के लिए मीडिया का 1 वर्ग इस बात में जुटा है कि कैसे इस इस पूरे प्रकरण को स्वाभाविक मौत में बदला जाए। हालत यह कि उस स्कूल की कक्षा में इंद्र पढ़ता था उसके साथ 30-35 बच्चे हैं । उनमें से सारे मीडिया वालों ने राजेश को छोड़कर किसी से बातचीत नहीं की क्या आप सोच सकते हैं कि मृतक इंद्र की सिर्फ एक ही बच्चे से दोस्ती थी। बाकी से बातचीत ही नहीं थी। जब मास्टरजी ने मारा होगा तो पूरी कक्षा में देखा होगा। जो उस समय मौजूद होंगे उन बच्चों ने देखा होगा। लेकिन क्या सिर्फ राजेश ने इसे देखा। लेकिन मीडिया सिर्फ उसी को हाईलाइट करके बता रहा है कि नहीं मास्टर जी ने थप्पड़ मारा। लेकिन एक बात समझ से परे है क्या एक थप्पड़ के मारने से ही बच्चे के पूरे गाल पर स्वेलिंग आ सकती है। ,उसके आंख पर सूजन और उसके बाद बच्चे के पिता उसको स्थानीय अस्पताल ले जाते हैं ।जालौर अस्पताल ले जाते हैं ,उदयपुर अस्पताल ले जाते हैं ।उदयपुर में 23 दिन रहने के बाद बच्चे की मौत हो जाती है । तो क्या एक सामान्य थप्पड़ से जिसे हल्का थप्पड़ मारना बोल रहे हैं। उससे इतनी हालत बिगड़ सकती है कि बच्चे की मौत हो जाए। सामान्य, हल्का थप्पड़ मारने पर आखिरकार छैल सिंह ने मृतक के परिवार से समझौता करने के लिए दबाव बनाया, किस कारण से उसके पिता को डेढ़ लाख रुपए दिया । और किस कारण से उसने पुलिस के सामने पहली बार इस बात को स्वीकार किया कि हां उससे गलती हुई है । बच्चे की पिटाई की, पिटाई और एक थप्पड़ मारने में थोड़ा सा अंतर है। मीडिया के लोग अपने ही बातों पर खुद गिर रहे हैं ।

बच्चे की मौत बीमारी से बताने की साजिश

बच्चा पहले से बीमार चल रहा था तो फिर छैल सिंह को डरने की जरूरत ही नहीं थी। वह समझौता किस बात के लिए करता, मुकदमा करने से क्यों रोकता , क्योंकि उसे पता था उससे गलती हो गई। हालांकि उसका मकसद भी बच्चे को जान से मारना तो नहीं रहा होगा। लेकिन एक जानबूझकर की गई गलती के कारण उसे पाक साफ भी तो नहीं बताया जा सकता। जिस दिन वह गिरफ्तार हुआ था उसने इस बात को स्वीकार भी किया कि उससे गलती हो गई। मारपीट वाली बात उसने पूर्व में भी मृतक छात्र के पिता से बातचीत से स्वीकार कर चुका था। कहा कि गलती हो गई मैं इलाज करा दूंगा। इसके बावजूद मीडिया का एक बड़ा बड़ा खेल को पाक साफ साबित करने में लगा हुआ है । वह य़ह साबित करने की कोशिश कर रहा है कि जो घटनाक्रम वहां हुआ है, उसमें छैल सिंह निर्दोष है । लड़के के पहले से कान में बीमारी थी, वहां किसी तरह का मटका नहीं रखा हुआ था। स्कूल में कोई भेदभाव नहीं होता है। यहां पर गांव में सब मिलजुल कर एक थाली में खाते हैं, और सब एक जगह रहते हैं ।ऐसी कहानी घड़ी जा रही है। लेकिन मीडिया के लोग अपनी ही कहानी में खुद उलझ कर रह गए हैं। यदि उन खुद मीडिया के लोगों से इस विषय पर और टंकी को लेकर सवाल किए जाएं तो वह खुद अपने जवाब में उलझ जाएंगे ।लेकिन उन्हें लगता है कि वह दुनिया के सबसे श्रेष्ठ बुद्धिजीवी और ज्ञानी व्यक्ति है , उनसे ज्यादा कोई समझ नहीं रखते। वह जैसा दुनिया को पढ़ाएंगे वैसा ही लोग समझेंगे ।लेकिन अब जमाना बहुत बदल गया है, आपकी तरह दूसरे लोग भी पढ़े लिखे हैं, जो अपने विवेक का उपयोग कर सकते हैं। स्क्रिप्टेड स्टोरी बनाने, कहानी घड़ने में और हकीकत को ढकने से सच्चाई दब नहीं सकती ,बाहर निकल कर आती है ।

विधायक जोगेश्वर का झूठ

भाजपा के विधायक जोगेश्वर गर्ग है ।जोगेश्वर गर्ग कहने को तो को दलित है, लेकिन अपने आप को दलितों में स्वर्ण मानते हैं। बोलते भी हैं साफ तौर पर की वह दलितों के भी ब्राह्मण हैं । जोगेश्वर गर्ग ने एक बयान जारी कर कहा कि स्कूल में मटके से पानी पीने से कोई मारपीट नहीं हुई । क्योंकि स्कूल में मटका था ही नहीं और यहां इस स्कूल में किसी तरह की छुआछूत नहीं होती है। लेकिन अगर आप जोगेश्वर गर्ग के पुराने वीडियो फुटेज निकाल कर देखेंगे तो वे खुद कई बार इस बात तो कहते थे कि उन्हें वोट मांगने जाते समय अपने साथ एक स्टील का गिलास रखना पड़ता है। जब वह सामान्य वर्ग के लोगों के बीच जाते हैं तो चाय पीने के लिए उन्हें अपना गिलास निकालना पड़ता है। वह चाय पानी पीते हैं और वापस रखते हैं । यह उन्होंने खुद स्वीकार किया कि उन्हें भी सामान्य वर्ग के सामने खाट पर नहीं , नीचे बैठना पड़ता है। इसे क्या कहेंगे क्या यह इससे साबित होता है कि जब दलित विधायक को ये सब फेस करना पड़ता है। इतना कुछ सहने के बाद भी एक विधायक को अपनी कुर्सी बचाने के लिए और भविष्य में चुनाव जीतने के लिए यह बयान देना पड़ा कि इलाके में सब कुछ सामान्य है यहां कोई डिस्क्रिमिनेशन नहीं होता है उनकी मजबूरी ही है।

पूर्व केंद्रीय मंत्री बूटा सिंह को भी यह झेलना पड़ता था

जालौर से सबसे ज्यादा सांसद समय तक सांसद और केंद्रीय मंत्री रहे स्वर्गीय बूटा सिंह को भी यहां पर सामाजिक समानता का सामना करना पड़ता था। उन्होंने भी कई बार इस बात का जिक्र किया। लेकिन वह चुनाव जीतने के बाद इलाके में बहुत कम आते थे। ऐसे में न तो कभी उन्होंने यहां के दलित वर्ग को आगे बढ़ाने की कोशिश की और ना ही कभी इस विषय पर विचार किया। उनका काम चुनाव जीतना मात्र ही था ।लेकिन उसने उन्हें खुद ने इस बात को कई बार मीडिया के सामने भी स्वीकार किया था कि इस इलाके में भेदभाव बहुत ज्यादा होता है। खुद उनको भी किसी के घर जाते समय चाय, पानी पीने के लिए गिलास खुद का रखना पड़ता था। इसके बावजूद मीडिया के लोग इस तरह की कहानियां गढ़ रहे हैं कि वहां बस इतना ही होता है बात हजम नहीं होती है सब लोग चाहते हैं कि मीडिया जो कह रहा है वह हकीकत बन जाए और किसी तरह का किसी के साथ भेदभाव नहीं होता की किसी दूसरे इंदर कुमार की जान नहीं जाए।

किरोड़ी मीणा को भी हजारों समर्थकों के साथ नहीं मिला था मंदिर में प्रदेश

भाजपा से राज्यसभा सांसद पूर्व मंत्री और तेजतर्रार नेता डॉक्टर किरोडी लाल मीणा को भी यहां हजारों समर्थकों के साथ आहोर में मंदिर दर्शनों के लिए जाने से पूर्व ही रोक दिया गया था । स्थानीय राजपुरोहित समाज ने मंदिर में प्रवेश को लेकर डॉक्टर किरोड़ी लाल मीणा का विरोध किया था। उस विरोध के चलते प्रशासन ने डॉक्टर किरोडी लाल मीणा और उनके हजारों समर्थकों को मंदिर जाने से रोक दिया था। उस समय राजस्थान में वसुंधरा राजे जी की सरकार थी ।और डॉक्टर किरोडी लाल मीणा को आहोर से बगैर दर्शन के लिए भी वापस लौटना पड़ा था। अगर जालौर जिले में छुआछूत नहीं होती है तो फिर डॉक्टर किरोडी लाल मीणा को जब खुद सांसद थे आखिरकार किस कारण से रोका गया। किस कारण से स्थानीय लोगों ने उनको मंदिर में प्रवेश करने से रोका। क्या कारण था कि 25000 लोग जो एससी, एसटी के थे उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं दिया गया ।इसका मतलब साफ है कि वहां पर छुआछूत होती है।

पूर्व विधायक द्रोपती मेघवाल को भी करना पड़ा था विरोध का का सामना

दिल्ली में पढ़ लिख कर बड़ी हुई राजस्थान में भाजपा से विधायक चुनी गई द्रोपती मेघवाल एक बार मंदिर में प्रवेश कर गई । मंदिर प्रवेश करने की जानकारी जैसे ही स्थानीय लोगों को लगी ,तो लोगों ने मंदिर को गंगा जल से धोया और भविष्य में द्रोपती मेघवाल को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया। क्या यह घटना भी छुआछूत की नहीं थी। इसके बाद द्रौपदी मेघवाल ने मंदिर में प्रवेश की कोशिश नहीं की। जबकि लोग ये प्रचारित करने में जुटे है कि जालौर में बिल्कुल भी इस तरह का भेदभाव नहीं होता है, तो फिर यह घटनाएं आखिरकार क्यों सामने आई। दलित आदिवासी समाज तो खुद चाहता है कि इस तरह की घटनाएं नहीं हो। ऐसी दर्जनों घटनाएं हैं जहां पर दलित- आदिवासियों के साथ साथ स्कूलों मे, मंदिरों में, सार्वजनिक स्थलों पर भेदभाव होता है । विरोध करने पर उनकी पिटाई होती है । उनका राशन ,पानी बंद कर दिया जाता है । उनका बहिष्कार कर दिया जाता है । लेकिन फिर भी यहां पर कुछ मीडिया के साथी सच्चाई दिखाने की बजाय इस पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं। जो शायद सरासर गलत है। या उनके मीडिया धर्म के अनुसार तो बिल्कुल भी सत्य नहीं है। उन्हें अवसर दिया गया है इस भेदभाव को मिटाने का, मानव मानव के बीच भेदभाव बना हुआ है उसे दूर करने की जिम्मेदारी उनकी है, लेकिन वह उस पर पर्दा डाल कर उन तत्वों को बढ़ावा दे रहे हैं जो इस व्यवस्था के पोषक है। जिसे मीडिया का एक वर्ग बरकरार रखना चाहती है।

मीडिया ढकने की बजाए यहां व्याप्त छुआछूत की भावना को दूर करने में बड़ी भूमिका निभा सकता है

मीडिया के साथियों को यहां बड़ा दिल रखते हुए इलाके में व्याप्त सामाजिक असमानता को दूर करने का प्रयास करना चाहिए था। जो भेदभाव हो रहा है, जातिगत भेदभाव होता है ।उसे दूर करने के लिए अच्छे से सुझाव देता ।लोगों के बीच जाता। उनके बीच के मेल को दूर करता। उन्हें समझाता कि मानव -मानव एक है अब समय बदल गया है । आपको इस तरह की भावनाएं दूर करनी होगी तो कहीं आम लोगों के दिल में भी मीडिया के ऐसे लोगों के प्रति सम्मान बढ़ता । लेकिन मीडिया ने यहां इस तरह की भूमिका निभाने की कोशिश ही नहीं की अपितू इस पूरे घटनाक्रम को ही झूठा साबित करने की कोशिश की।

भीम आर्मी चीफ चंद्र शेखर के प्रति बड़ा विश्वास

जब सरकार दलितों की सुन नहीं रही है, विपक्ष की पार्टियों ने भी इसमें अब तक कोई खास रुचि नहीं दिखाई है। तो ऐसे में दलित वर्ग का भीम आर्मी के प्रति बड़ा भरोसा जगा है ।दलितों के साथ-साथ आदिवासी समाज के लोग भी भीम आर्मी का समर्थन करने लगे हैं। लेकिन अब सभी दूसरी जातियों के लोग जिन्होंने अपने कई बोर्ड संगठन बना रखे हैं । बड़े-बड़े जातिगत संगठन बना रखे हैं। वे सब लोग इस बात पर पीछे पड़ गए हैं कि कैसे न कैसे करके भीम आर्मी को बैन कर दिया जाए। आज दलित आदिवासियों में भीम आर्मी विश्वास का दूसरा नाम है। देश में कहीं भी किसी दलित ,गरीब ,पिछड़े पर अन्याय होता तो भीम आर्मी के लोग वहां पर खड़े नजर आते हैं । संघर्ष करते हैं। जब दलित आदिवासी संगठनों के नेता विधायक ,मंत्री उनकी आवाज उठाने में फेल होते हैं ,तब चंद्रशेखर आजाद उनकी आवाज बनता है । यही कारण है कि सरकार के खिलाफ दलित- आदिवासियों की आवाज को जब भी चंद्रशेखर आजाद उठाता है, तो सरकार उसे पहले ही उसे गिरफ्तार कर लेती है । लेकिन ऐसा करके सरकार खुद के लिए परेशानी खड़ा कर रही है। ऐसा करने से दलित वर्ग में सरकार के खिलाफ भी असंतोष बढ़ रहा है। आज पूरे देश में घर-घर में भीम आर्मी के लोग हैं। ऐसे में सरकार किस किस को गिरफ्तार करेगी ,यह समझ से परे है ।लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों का चंद्रशेखर से डरना भी खतरनाक है। जबकि चंद्रशेखर आजाद और भीम आर्मी ने कभी भी किसी समाज या जाति के खिलाफ या धर्म के खिलाफ आंदोलन नहीं छेड़ा है। जब उनके अपने लोगों को सताया जाता है, तब उस अपराधी के खिलाफ खड़े होते हैं। जो अपराध सामने वाले ने किया होता है। उसके बावजूद भी चंद्रशेखर आजाद को एक खलनायक के तौर पर और भीम आर्मी को एक असामाजिक संगठन ठहराने की साजिश की जा रही हो तो यह सरासर गलत है। आखिरकार दलित वर्ग को भी जिंदा रहने का अधिकार है। यदि वह किसी एक संगठन के माध्यम से एक साथ उठ खड़ा होता है, तो यह है उसके लिए जरूरी है। ऐसे में सरकार को इस पर भी विचार करना होगा। दलित आदिवासियों की आवाज को दबाना आसान नहीं होगा।

सर्व समाज ने किया जालौर में प्रदर्शन

सर्व समाज ने छात्र की मौत छात्र की मौत की निष्पक्ष जांच की मांग को लेकर जालौर में रैली निकालकर प्रदर्शन किया। समाज का कहना है कि इस विषय में निष्पक्ष जांच हो और जो भी दोषी है उसे सजा मिले। सर्व समाज ने भीम आर्मी और अन्य दलित संगठनों के प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग की। आज तक भीम आर्मी और अन्य संगठनों में कभी किसी जाति विशेष के खिलाफ कोई प्रदर्शन नहीं किया ।दोषी को सजा देने और सरकार से मृतक के परिजनों को मुआवजा देने की मांग कर रहे हैं। लेकिन सारे लोग इस विषय को जानबूझकर जाति संघर्ष से जोड़कर देख रहे हैं। चंद्रशेखर आजाद का हमारा विरोध हमारा विरोध किसी जाति विशेष से नहीं है। आज तक हमने कभी भी किसी भी जाति के खिलाफ कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन तो हमारे लोगों पर अत्याचार को उसके खिलाफ हम लड़ाई जारी रखेंगे। हमारी लड़ाई सरकार से है, और जो इस छात्र की पिटाई का दोषी है उसे कड़ी से कड़ी सजा मिले। इसमें जाति वैमनस्यता बढ़ाने की बात कहां से आ गई? क्या हम हमारे हकों के लिए लड़ाई भी नहीं लड़े। हमारे लोगों को मार दिया जाए, उनकी लड़ाई भी नहीं लड़े, ऐसा संभव नहीं हो सकता है। हमारी लड़ाई सिर्फ अन्याय के खिलाफ हैं ।किसी जाति, धर्म के खिलाफ नहीं है। जिस तरह से सर्व समाज को अपनी बात रखने का हक है, तो हमें भी अपनी बात रखने का हक है।

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