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टाटा ग्रुप में मची खामोश हलचल — भारत के सबसे भरोसेमंद घराने में अब भरोसे की दरार!
भारत के बिज़नेस इतिहास में टाटा ग्रुप सिर्फ एक नाम नहीं, एक नैतिकता, एक भरोसा, एक पहचान रहा है।
वो नाम, जिसने नफे से ज़्यादा देश को कमाया।
लेकिन अब उसी ग्रुप के भीतर ऐसी आंधी उठी है कि सरकार को बीच-बचाव के लिए उतरना पड़ा है।
हाँ, आपने सही सुना —
भारत सरकार को अब “टाटा ग्रुप के झगड़े” में मध्यस्थ बनना पड़ रहा है।
कभी जो परिवार पूरे कॉरपोरेट जगत के लिए “संयम और संस्कृति” का प्रतीक था,
वो आज “दो खेमों” में बंट चुका है।
एक तरफ नोएल टाटा और वेणु श्रीनिवासन का गुट है ……
जो पुरानी परंपराओं, यथास्थिति और सतर्कता की बात करता है।
दूसरी तरफ मेहली मिस्त्री, प्रमित झावेरी और डेरियस खंबाटा जैसे ट्रस्टी हैं —
जो सुधार, पारदर्शिता और नई दिशा की मांग कर रहे हैं।
और इन दोनों के बीच फंसा है —
टाटा संस, जो देश की सबसे प्रतिष्ठित कंपनियों में से एक है,
मगर अब एनबीएफसी लिस्टिंग और गवर्नेंस विवादों के बीच डांवाडोल खड़ी है।
कभी जमशेदजी टाटा ने कहा था,
“व्यवसाय वो, जो समाज के भरोसे पर टिका हो।”
आज वही भरोसा, बोर्डरूम के बंद दरवाज़ों में,
फाइलों और फेवरों के बीच झूल रहा है।
सरकार चिंतित है, बाजार सतर्क है,
और निवेशक सोच रहे हैं —
क्या अब टाटा का ‘T’ भी Trust से नहीं, Tension से जुड़ गया है?
टाटा ग्रुप में ये झगड़ा सिर्फ कुर्सी या नियुक्तियों का नहीं,
ये संस्कृति बनाम बदलाव की लड़ाई है।
एक तरफ पुरानी विरासत को बचाने की जिद,
दूसरी तरफ आधुनिक गवर्नेंस की पुकार।
लेकिन सवाल बड़ा है —
क्या यह उथल-पुथल टाटा की साख को हिला देगी?
या फिर टाटा एक बार फिर वही करेगा जो हमेशा करता आया है —
संघर्ष के बीच से नई राह निकालना।
क्योंकि अगर टाटा ग्रुप हिलता है,
तो भारत का कॉरपोरेट भरोसा भी कांप जाता है।
और यही सबसे बड़ी चिंता है —
जब टाटा जैसे घराने में शांति नहीं है,
तो देश के बाकी कारोबारी घराने किस दिशा में जाएंगे?
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