लोक टुडे न्यूज नेटवर्क राज
हेमराज तिवारी वरिष्ठ पत्रकार
“राष्ट्रहित में चुप्पी नहीं, पारदर्शिता होनी चाहिए।”
यह कथन इन दिनों भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति और विदेश संबंधों पर विशेष रूप से लागू होता है। भारत और पाकिस्तान के बीच अचानक हुए संघर्षविराम समझौते ने राजनीतिक गलियारों से लेकर कूटनीतिक विश्लेषकों तक को चौंका दिया। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस निर्णय पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह क्या अमेरिका के दबाव में हुआ समझौता है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की ‘मध्यस्थता की पेशकश’ को चुपचाप स्वीकार कर लिया?
ये सवाल महज राजनीतिक बयानबाज़ी नहीं हैं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा से उपजे आवश्यक प्रश्न हैं।
क्या अमेरिका ने खेला दबाव का कार्ड?
डोनाल् ट्रंप की मध्यस्थता की पेशकश को भारत ने पहले कई बार ठुकराया। भारत हमेशा यह कहता रहा कि कश्मीर एक द्विपक्षीय मामला है और इसमें किसी तीसरे पक्ष की भूमिका नहीं हो सकती। लेकिन यदि भारत ने किसी दबाव में आकर अचानक संघर्षविराम की घोषणा कर दी — तो यह उस नीति का उल्लंघन होगा जिसे भारत दशकों से दोहराता आ रहा है।
यदि यह निर्णय भारत की सामरिक, कूटनीतिक और राजनीतिक दृष्टि से लिया गया है, तो ठीक — लेकिन सवाल यह है कि इसे स्पष्ट क्यों नहीं किया गया?
इंदिरा गांधी की तुलना में मोदी की चुप्पी
गहलोत ने याद दिलाया कि 1971 में जब इंदिरा गांधी ने अमेरिका के भारी दबाव के बावजूद पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध लड़ा और बांग्लादेश का निर्माण कराया — तो उन्होंने राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा। उस समय अमेरिका ने यहां तक धमकी दी थी कि उसका सातवाँ बेड़ा बंगाल की खाड़ी की ओर रवाना होगा। बावजूद इसके, भारत पीछे नहीं हटा।
आज मोदी सरकार के निर्णय को लेकर वही सवाल उठता है — क्या इस बार भारत झुका है?
लोकतंत्र में चुप्पी नहीं चलती
सरकार कह सकती है कि यह निर्णय सेना की सलाह पर या आतंकवाद की परिस्थिति को देखते हुए लिया गया, लेकिन इन सब बातों को सार्वजनिक रूप से साझा करना चाहिए था। संसद, जनता और मीडिया को अनजान रखना किसी लोकतांत्रिक सरकार के लिए उचित नहीं।
क्या हम सिर्फ ‘मन की बात’ और टीवी इंटरव्यू तक सीमित शासन चाहते हैं? या एक उत्तरदायी, पारदर्शी लोकतंत्र?
चुनाव बनाम राष्ट्रनीति
एक और पहलू है — क्या यह निर्णय पश्चिम बंगाल चुनाव से पहले मुस्लिम मतदाताओं को संदेश देने के लिए लिया गया है? या यह वैश्विक मंच पर भारत की ‘शांतिदूत’ छवि गढ़ने की रणनीति है?
यदि इनमें से कोई कारण है, तो भी जनता को जानकारी दी जानी चाहिए।
जवाब चाहिए, सिर्फ प्रचार नहीं
सरकार को चाहिए कि वह स्पष्ट करे:
क्या अमेरिका के दबाव में सीजफायर हुआ?
पाकिस्तान से किन शर्तों पर सहमति बनी?
क्या यह सिर्फ सैन्य निर्णय है या राजनीतिक?
राष्ट्र का विश्वास प्रचार से नहीं, पारदर्शिता से बनता है।
गोलियों का संघर्षविराम हो सकता है, पर सवालों का नहीं।