आज भी दलित समाज की आर्थिक स्थिति देखी जाए तो बहुत अच्छी नहीं है । कुछ प्रतिशत सरकारी नौकरी वाले या स्वयं के रोजगार करने वाले व्यक्तियों को छोड़ दिया जाए तो करीब 70 से 80% लोग गरीब या गरीबी की रेखा से भी नीचे जीवन यापन कर रहे हैं । इस गरीबी का कारण एक तो रोजगार की कमी है ही साथ ही जो भी रोजगार कर के आय प्राप्त की जाती है उसका दुर्पयोग अधिकांश तह नशे ,मांस मदिरा या सामाजिक दिखावे में किया जाता है । दलित समाज में प्रचलित सैकड़ों ऐसी प्रथाएं हैं जिनको सदियों से ढोते रहने से ही गरीब आज भी गरीब ही बना हुआ है ।
शिक्षा ,सामाजिक बदलाव और आर्थिक स्थिति में परिवर्तन का आज भी दलित समाज के लोगों पर कोई प्रभाव नहीं
समाज में परम्परागत प्रथाएं जैसे , दहेज ,पहरावनी , जमाना , सवामिनी ,सगाई ,रोका , टीका ,शादी , भात,सत्संग , मृत्यु भोज , गृह प्रवेश ,बच्चों के जन्म उत्सव , जैसी परम्परागत प्रथाएं आज भी उसी शानो शौकत से मनाए जाते हैं जैसे सदियों से मनाए जा रहे हैं ।
यद्यपि तीज त्यौहार ,या सामाजिक, पारिवारिक उत्सव मनाया जाना एक खुशी और हर्षौल्लास का विषय अवश्य है यह जीवन में जीवंतता ,निरंतरता जरूर लाते हैं और प्रत्येक व्यक्ति को आनंद और खुशी का अहसास करवाते हैं और सामाजिक जीवन में यह सब जरूरी भी है ताकि व्यक्ति तनाव और अवसाद से दूर रहे लेकिन आज कल यह आयोजन सिर्फ और सिर्फ अपने अहम, रुतबे ,पैसे को दिखाने मात्र का साधन बन गए हैं और जो गरीब है उसके लिए एक सामाजिक दवाब और मजबूरी बन गए हैं ।
विडंबना तो यह है कि हर व्यक्ति इन सब को सिर्फ आयोजित नहीं करता बल्कि उस आयोजन को अपने अहम , प्रतिष्ठा से जोड़ कर ज्यादा से ज्यादा पैसा और समय दोनों बर्बाद करने में लगा रहता है।
जिनके पास ज्यादा पैसा है वो भी दिखावे के लिए बढ़ चढ़ कर पैसा और समय बर्बाद करता है और जिसके पास नहीं है वो भी अपनी औकात से ज्यादा पैसा खर्च करता है चाहे उसे उधार ले कर ही करना पड़े लेकिन वह करेगा जरूर।
यदि समाज की इन परंपराओं को गौर से देखा जाए तो इसमें किए जाने वाला लेन देन जैसे कपड़े ,या अन्य समान बहुत ही तुच्छ स्तर के होते हैं और सिर्फ दिखावे के लिए और लोगों के अहम को शांत करने भर के लिए दिए जाते हैं और इस लेने देने में हजारों लाखों रु खर्च होने और घंटों समय खराब होने के बाबजूद भी कोई खुश नहीं होता है बल्कि सब कुछ लेने के बाद भी हजारों कमियां ही निकाली जाती हैं ।
यदि इस दिखावे के लेन देन से कोई खुश होता है तो वह व्यापारी बनिया वर्ग होता है जिसको इन सब प्रथाओं से हजारों लाखों का मुनाफा हो रहा होता है और सदियों से वो इसी व्यापार से अपनी कौम को पोषित कर रहा है और आगे से आगे तरक्की प्राप्त भी कर रहा है लेकिन इस तरक्की के लिए उसकी मेहनत भी शामिल है जो वो सदियों से कर रहा है
लेकिन दलित समाज व्यापारी के व्यापारिक ज्ञान और मेहनत से कोई सबक नहीं ले रहा।
दलित व्यक्ति को यह फर्क दिखाई नहीं देता ना ही समझ आता है कि आपकी मेहनत की कमाई से कोई व्यापारी वर्ग कितना लाभ अर्जित कर रहा है और दलित वर्ग कितना वंचित हो रहा है वह तो सिर्फ दिखावा करने के लिए या एक दवाब से समाज में प्रचलित पुरातन प्रथाओं को बनाए रखने हेतु समाज के समय और धन दोनों का लगातार अपव्यव करता रहता है और अपने दिमाग को बंद कर सिर्फ अंधानुकरण कर रहा है।
कुप्रथाओं को ढोने मैं समाज आगे
दूसरा दलित समाज का व्यक्ति कितना ही पढ़ लिख जाए उसमें व्यवस्था और सामाजिक प्रथाओं को परिवर्तित करने का साहस नहीं होता और पुरातन प्रथाओं को आज भी ढोह रहा है।
तीसरा यही अथाह पैसा जो समाज के गरीब जरूरत मंद की जरूरत है उसे देने की बजाय अपने दिखावे में खर्च करना ज्यादा पसंद करता है और अपने अहम को संतुष्ट करने में लगा है क्योंकि उसे गरीब की तकलीफों और जरूरतों का कोई अहसास नहीं है ।
बाबा साहेब ने हमेशा समाज के लिए कार्य किया ,समाज की तकलीफों को महसूस किया और उन तकलीफों को दूर करने हेतु स्वयं के जीवन और अपने परिवार के जीवन को भी सरल और साधारण बनाए रखा ताकि उनका दलित समाज आगे बढ़ सके ।और उनके संघर्षों और त्याग की वजह से आज हम सब बहुत अच्छे मुकाम पर खड़े हैं
और हम सब चाहे तो बाबा साहब की साधारण जीवन शैली को अपना कर समाज के कमजोर वंचित वर्ग को आगे बढ़ा सकते हैं
बस जरूरत इतनी सी है कि आप अपने सभी सामाजिक आयोजनों को थोड़ा सीमित कर दें ,थोड़ा समय और खर्च कम कर दें थोड़ा सा दिखावा कम कर दें और जो बचत इससे होगी उसे समाज को पे बेक कर दें ताकि सामाजिक समानता की भी स्थापना हो सके ।
बहुत ज्यादा नहीं तो थोड़ा थोड़ा सा ही सही अवश्य लौटाएं ,समाज को लौटाएं।
लेखिका
सीमा हिंगोनिया,
अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक
कमांडेंट
आरएसी थर्ड बटालियन बीकानेर।