लोक टुडे न्यूज नेटवर्क
हेमराज तिवारी वरिष्ठ पत्रकार
ऑपरेशन सिंदूर –
धार्मिक नरसंहार की आधुनिक अभिव्यक्ति इस्लामी कट्टरवादियों द्वारा हाल ही में की गई हिंसक घटनाओं ने एक बार फिर सिद्ध किया कि धार्मिक उन्माद जब आतंकी रूप ले लेता है, तो वह मानवता का शत्रु बन जाता है। पीड़ितों से पूछा गया, “तुम हिंदू हो?” उत्तर मिलने पर उनकी निर्मम हत्या कर दी गई। किसी के माथे पर तिलक, किसी की गर्दन में रुद्राक्ष या मंगलसूत्र, किसी के हाथ में पूजा की थाली या पीठ पर नाम सब पहचान बन गए मृत्यु के। यह आतंकवाद नहीं, बल्कि सुनियोजित सभ्यतागत युद्ध था।
सरकार और सेना की चेतना भारत सरकार और सुरक्षाबलों ने इसे केवल आतंकी कार्रवाई नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक अस्मिता पर हमला माना। यह कोई सामान्य कानून व्यवस्था का मसला नहीं था। यह प्रश्न था कि क्या हम अपने नागरिकों की धार्मिक पहचान की रक्षा करने में सक्षम हैं? इस प्रश्न का उत्तर सेना ने दिया युद्धभूमि में नहीं, बल्कि चेतना की भूमि पर। एक ऐसा उत्तर जिसकी योजना महीनों तक तैयार की गई।
ऑपरेशन सिंदूर की अवधारणा इस सैन्य कार्रवाई का नाम ही अपने आप में एक प्रतीक है ‘सिंदूर’। वह जो स्त्री की मांग में होता है, उसकी गरिमा का प्रतीक होता है, वह सिंदूर जब सैनिकों के ललाट पर पहुंचता है तो वह राष्ट्र की रक्षा का ध्वज बन जाता है। यह ऑपरेशन केवल बदला नहीं था, यह संदेश था: अब भारत धार्मिक पहचान पर हुए हमलों को व्यक्तिगत त्रासदी नहीं, राष्ट्रीय चुनौती मानेगा।
रणनीति और क्रियान्वयन ऑपरेशन सिंदूर एक बहुआयामी योजना थी। इसमें सीमापार आतंकी ठिकानों पर सर्जिकल स्ट्राइक की गईं। गुप्तचर एजेंसियों ने उन मॉड्यूल्स की पहचान की जो धार्मिक हिंसा को उकसाते थे। साइबर विंग ने दुष्प्रचार फैलाने वाले डिजिटल नेटवर्क को निष्क्रिय किया। मनोवैज्ञानिक स्तर पर प्रचार किया गया कि भारत अब सहनशीलता की सीमा पार नहीं होने देगा। कमांडो दस्ते उन क्षेत्रों में तैनात किए गए जहाँ धार्मिक यात्राएं होती हैं, ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकी जा सके।
धर्म की परिभाषा में नया आयाम इस ऑपरेशन ने ‘धर्म’ शब्द की पुनर्परिभाषा की। यह सिद्ध किया कि धर्म अब केवल पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि आत्म-सम्मान और अस्तित्व की रक्षा का भी माध्यम है। भारत ने दिखाया कि धर्म को हिंसा का हथियार नहीं, शांति की ढाल बनाया जा सकता है। ऑपरेशन सिंदूर ने यह स्पष्ट किया कि हमारी ‘धर्मनिरपेक्षता’ तुष्टिकरण नहीं, न्याय का नाम है। यदि कोई विशेष धर्म को आधार बनाकर नरसंहार करता है, तो उसका उत्तर देने का नैतिक अधिकार भी भारतीय समाज को है—और वह उत्तर संयम से नहीं, पराक्रम से दिया जाएगा।
सांस्कृतिक वर्चस्व का प्रतीक यह ऑपरेशन केवल युद्ध नहीं था, यह सांस्कृतिक वर्चस्व की पुनर्प्रतिष्ठा थी। यह उन सभी वर्षों की पीड़ा का उत्तर था जब कश्मीरी पंडितों को धर्म के नाम पर पलायन करना पड़ा, जब मंदिरों पर हमले हुए, जब बहुलतावाद के नाम पर बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को दबाया गया। सिंदूर उस प्रतीक का नाम बन गया जिसने ‘शौर्य’ और ‘संस्कार’ को एक साथ खड़ा कर दिया।
अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रभाव संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भारत की कार्रवाई को प्रारंभ में कठोर कहा गया, लेकिन जैसे ही तथ्यों, वीडियो फुटेज और गुप्तचर सूचनाएं सामने आईं, वैश्विक समुदाय ने यह स्वीकार किया कि भारत का यह प्रतिकार केवल सैन्य नहीं, नैतिक रूप से भी उचित था। कई देशों ने इसे ‘मॉडल ऑपरेशन’ की संज्ञा दी, जो धार्मिक हिंसा के विरुद्ध सशक्त और संयमित दोनों था।
बलिदान और प्रेरणा ऑपरेशन सिंदूर में कई सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी। उनकी शहादत केवल वीरगाथा नहीं, राष्ट्रगाथा बन गई। हर शहीद का लहू उस सिंदूर में बदल गया जो भारत माता के मस्तक पर विजय का प्रतीक बन गया। ये बलिदान केवल एक पीढ़ी को नहीं, आने वाली नस्लों को यह सिखाएंगे कि धार्मिक पहचान पर हमला किसी एक वर्ग का नहीं, पूरी सभ्यता का अपमान है।
समाज की भूमिका यह भी समय है कि समाज अब जागे। केवल सेना को दोष देकर हम अपने कर्तव्यों से मुक्त नहीं हो सकते। धर्म का सम्मान केवल त्योहारों या आस्थाओं में नहीं, उसकी रक्षा में भी है। जब कोई धर्म के नाम पर हिंसा करे, तो उसके विरुद्ध बोलना भी ‘धार्मिक’ कर्तव्य होना चाहिए। ऑपरेशन सिंदूर ने हमें यह बोध दिया कि धर्म आत्मरक्षा भी सिखाता है, और जब अन्याय बढ़े तो युद्ध भी धर्म बन जाता है।
धर्म का सिंदूर, शौर्य का आभूषण ऑपरेशन सिंदूर भारत की सैन्य नीति का वह अध्याय है जिसने यह सिद्ध किया कि आधुनिक भारत केवल आर्थिक या तकनीकी शक्ति नहीं, सांस्कृतिक और धार्मिक चेतना की शक्ति भी है। जब कोई ‘धर्म पूछकर’ मारे, तो भारत ‘धर्म बताकर’ उत्तर देना जानता है—और वह उत्तर केवल युद्ध नहीं, न्याय होता है। यही न्याय जब सिंदूर बनकर राष्ट्र के मस्तक पर सुशोभित होता है, तो वह केवल एक रंग नहीं, एक विचार बन जाता है।
ऑपरेशन सिंदूर कोई अंतिम अध्याय नहीं, यह उस यात्रा की शुरुआत है जहाँ भारत अपनी सांस्कृतिक सीमाओं की रक्षा केवल बंदूक से नहीं, प्रतीकों और विचारों से भी करेगा।
अब समय है कि हम सब इस सिंदूर को अपने भीतर महसूस करें—क्योंकि धर्म केवल पूजा नहीं, पराक्रम भी है।