जयपुर। (सीमा हिंगोनिया )आप सभी प्रथाओं को बदलने की बात तो करते हैं पर दलित ही क्यों बदले ??? सामान्य वर्ग क्यों आज भी घोड़ी और घोड़े को अपनी बपौती मांग कर बैठा है ???? वह कौन है यह निर्धारित करने वाला कि दलित को यह करना है ,और यह नहीं करना है ? गांव में आजादी के 70 साल बाद यह हिम्मत आने लगी है, कि वह इस समाज में उस वक्त कर सकता है जो सदियों से नहीं कर पाया और यह परिवर्तन शिक्षा की देन है । उस दिन बाद जब वे ज्यादा शिक्षित, विकसित होगा वह स्वयं ही पुरानी प्रथा को छोड़ने लगेगा जैसे अन्य शिक्षित छोड़ने लगे हैं। आज भी सिटी और गांव के दलित में दिन-रात अंतर है। यह समझे उसके लिए आजादी और समानता का मतलब ही मंदिर जाना और घोड़ी पर चढ़ना है। हम कमजोर को ज्ञान ज्यादा देते हैं और सिटी वालों को कम, जो लाखों खर्च करता है अपनी शान और शौकत पर शादियों में। हम उसकी तारीफ करते हैं बढ़ाई करते हैं। अभी गांव में जागरूकता आने लगी है इसलिए आमना सामना होने लगा है। आठ- 10 सालों में परिवर्तन आएगा । जरूरत इस समय यह है कि कमजोर का साथ दें ,उसे कानून से लड़ना सिखाएं ,न्याय दिलाएं, उसकी बच्चियों को अपनी बच्ची माने । सिटी वाले दलित को समझाएं कि वह दिखावा और फिजूलखर्ची बंद करें और गरीब की बच्ची की शादी में उसकी पढ़ाई में सहायता करें ।
कौन घोड़ी पर चढ़ेगा और कौन क्या पहनेगा इसका निर्धारण दूसरा कैसे तय कर सकता है????,
- Advertisement -
- Advertisement -