लोक टुडे न्यूज नेटवर्क
समितियों की नियुक्तियाँ और विपक्षी पलायन की पटकथा
हेमराज तिवाड़ी वरिष्ठ पत्रकार
राजस्थान की सियासत इन दिनों कई स्तरों पर एक गहरे और दूरगामी बदलाव के दौर से गुजर रही है। एक ओर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) राज्य विधानसभा की समितियों की अध्यक्षता में फेरबदल कर रही है, वहीं दूसरी ओर विपक्ष के कई वरिष्ठ नेता पार्टी में शामिल होने के लिए पंक्ति में खड़े हैं। यह केवल सत्ता संतुलन का मामला नहीं, बल्कि सत्ता कौशल और संगठनात्मक मजबूती की उस सियासी चाल का हिस्सा है, जिसे भाजपा केंद्र और राज्यों में वर्षों से आजमाती रही है।
समितियों की राजनीति: संविधान बनाम शक्ति संतुलन
हाल ही में राजस्थान विधानसभा में विशेषाधिकार समिति की अध्यक्षता कांग्रेस विधायक नरेंद्र बुडानिया से लेकर भाजपा विधायक केसाराम चौधरी को सौंप दी गई। यह बदलाव न केवल समिति की कार्यप्रणाली पर प्रभाव डालेगा, बल्कि यह इस बात का संकेत भी है कि भाजपा अब महज सत्ता में रहने से संतुष्ट नहीं, बल्कि विधायी संस्थाओं में भी अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहती है।
विपक्ष ने इसे संविधानिक मर्यादा का उल्लंघन बताया, और यह सवाल उठता है कि क्या विधायिका की संस्थागत स्वतंत्रता को बहुमत की राजनीति से चुनौती दी जा रही है? यह घटनाक्रम भाजपा के ‘सूक्ष्म नियंत्रण’ (micro-control) मॉडल का उदाहरण बनता जा रहा है।
भाजपा का आंतरिक असंतोष बनाम विपक्षी आकर्षण
समितियों में अध्यक्ष बदलना जितना बाहरी शक्ति प्रदर्शन है, उतना ही आंतरिक असंतोष को शांत करने का माध्यम भी। बूंदी में भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा नगर अध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर सामूहिक इस्तीफे इस बात की ओर इशारा करते हैं कि पार्टी में जमीनी कार्यकर्ता खुद को हाशिये पर महसूस कर रहे हैं।
ऐसे समय में जब संगठन की दीवारें भीतर से कमजोर पड़ रही हों, पार्टी द्वारा विपक्षी नेताओं को आमंत्रण देना और उन्हें केंद्रीय भूमिका देना, पुराने कार्यकर्ताओं में असंतोष और नया शक्ति-संतुलन पैदा कर सकता है।
विपक्षी नेताओं का भाजपा में पलायन – सियासत या सरेंडर?
राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज़ है कि कुछ पुराने, अनुभवी विपक्षी नेता भाजपा में शामिल होने को तैयार बैठे हैं। यह ‘घर वापसी’ नहीं, बल्कि एक ‘राजनीतिक पलायन’ है, जहां सत्ता में हिस्सेदारी की चाह लोकतांत्रिक विपक्ष की भूमिका को खोखला करती है।
भाजपा की रणनीति स्पष्ट है—कमजोर विपक्ष, संगठित सत्ता। परंतु यह रणनीति अंततः लोकतंत्र के स्वस्थ ढांचे के लिए घातक सिद्ध हो सकती है, जहां सत्ता का प्रतिरोध करने वाली संस्थाएँ धीरे-धीरे खत्म होती जाती हैं।
क्या राजस्थान का लोकतंत्र बहस का केंद्र बनेगा?
समितियों की नियुक्तियाँ हो या विपक्षियों का भाजपा में सम्मिलित होना, यह सब एक गहरे परिवर्तन की ओर संकेत करता है। भाजपा जहाँ सत्ता को संस्थागत व संरचनात्मक स्तर तक मजबूत करने में जुटी है, वहीं विपक्ष नेतृत्वहीनता और असमंजस के दौर में है।
राजनीति अब केवल चुनाव जीतने तक सीमित नहीं रही—यह अब विधायी समितियों, पार्टी नियुक्तियों और मनोवैज्ञानिक नियंत्रण का खेल बनती जा रही है। राजस्थान का राजनीतिक परिदृश्य आने वाले महीनों में देशभर के लिए एक मॉडल बन सकता है—या तो सत्ता के केंद्रीकरण का, या फिर लोकतंत्र के पुनर्परिभाषण का।