जातिगत जनगणना: सामाजिक न्याय या एक खतरनाक प्रयोग?

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लोक टुडे न्यूज नेटवर्क

हेमराज तिवारी वरिष्ठ पत्रकार

भारत में जाति, धर्म और वर्ग की जटिलताओं के बीच अब एक नया विमर्श केंद्र में आ गया है—जातिगत जनगणना। यह मांग वर्षों से चली आ रही है, लेकिन अब जब केंद्र सरकार ने इसके लिए संकेत दिए हैं, तब यह विषय सामाजिक न्याय के साथ-साथ राजनीतिक समीकरणों और राष्ट्रीय एकता से भी जुड़ गया है।

राजनीतिक दबाव और सामाजिक आवश्यकता

कांग्रेस नेता सचिन पायलट और राहुल गांधी जैसे नेताओं का कहना है कि यह कदम उनके निरंतर दबाव का परिणाम है। वे इसे नीति निर्माण और कल्याणकारी योजनाओं को समुचित रूप देने का उपकरण मानते हैं। पायलट की यह बात, कि यह प्रक्रिया सतही नहीं होनी चाहिए, हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या यह केवल राजनीतिक लाभ का माध्यम बन रही है, या वास्तव में देश के सबसे वंचित तबकों तक योजनाओं को पहुँचाने का प्रयास है?

समाज में असमानता का आईना

यह भी एक कटु सच्चाई है कि भारत की 1% आबादी 40% संपत्ति पर काबिज है। यदि जातिगत जनगणना के जरिए यह सामने आता है कि किन जातियों को सबसे कम लाभ मिला है, तो निश्चित ही यह योजनाओं की दिशा बदल सकती है। परंतु यह तभी संभव है जब प्रक्रिया वैज्ञानिक, पारदर्शी और ईमानदार हो—not selective and politically driven.

राजनीति का खतरा: विभाजन की ओर बढ़ते कदम?

दूसरी ओर, इस जनगणना का राजनीतिक उपयोग समाज को बांटने का ज़रिया भी बन सकता है। क्या यह संभव नहीं कि आने वाले समय में धर्म के आधार पर भी नौकरियां, संस्थानों की सीटें और राजनीतिक टिकट मांगे जाने लगें? यदि सरकारें इस दबाव के आगे झुकती रहीं, तो एक ऐसी स्थिति बन सकती है जिसमें योग्यता, समर्पण और राष्ट्रीय हित पीछे छूट जाएं, और “संख्याबल आधारित हक़” ही नया संविधान बन जाए।

क्या यही है भारत का भविष्य?

सोचिए, यदि हर नियुक्ति, हर मंत्रालय और हर चुनाव जाति और धर्म के अनुपात से तय होने लगे—तो क्या हम एक समरस भारत की ओर बढ़ रहे होंगे, या एक संख्याबल भारत की ओर?

संवेदनशील दृष्टिकोण की आवश्यकता

समस्या जातिगत आंकड़े इकट्ठा करने में नहीं, बल्कि उनके उपयोग की नियत में है। यदि ये आंकड़े न्याय की आधारशिला बनें—उचित आरक्षण, समुचित संसाधन आवंटन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का सम-वितरण—तो यह भारत के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है। लेकिन यदि ये आंकड़े चुनावी लाभ और धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए हथियार बनें, तो यह राष्ट्र के सामाजिक ताने-बाने के लिए विष हो सकता है।

संतुलन ही समाधान है

भारत को जरूरत है एक ऐसी जातिगत जनगणना की, जो आंकड़े तो दे, पर विभाजन न करे। जो न्याय दे, पर नफरत न उगले। जो विकास की दिशा तय करे, पर समाज को दिशाहीन न बनाए। यही एक सतर्क, सजग और दूरदर्शी राष्ट्र की पहचान है।

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