लोक टुडे न्यूज नेटवर्क
हेमराज तिवारी वरिष्ठ पत्रकार
“शूद्र: अछूत नहीं, सेवा का स्तंभ — वेदों की वाणी में विकृति का प्रतिरोध”
एक प्रश्न जो आत्मा को झकझोरता है
“शूद्र” शब्द सुनते ही कई चेहरों पर हेय दृष्टि, इतिहास की झुंझलाहट और जातीय घृणा का चित्र उभर आता है।
पर क्या यह वैदिक सनातन धर्म की आत्मा थी?
या फिर यह उस समाज की परिणति है, जिसने ‘वर्ण’ को ‘वर्णा’ बना दिया, और ‘सेवा’ को ‘अस्पृश्यता’?
यह आलेख किसी समुदाय को न ऊँचा ठहराने के लिए है, न किसी को गिराने के लिए — यह उस वैदिक चेतना की खोज है, जहाँ शब्द से पहले भाव था, और सेवा का अर्थ था, समर्पण।
अध्याय 1: वेद की दृष्टि में ‘शूद्र’ — सेवा, आधार और कर्मशीलता का प्रतीक
ऋग्वेद 10.90.12 — पुरुष सूक्त
> “ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।”
भावार्थ:
सृष्टिकर्ता पुरुष के शरीर से चार वर्ण उत्पन्न हुए मुख से ब्राह्मण (ज्ञान), भुजाओं से क्षत्रिय (बल), जंघा से वैश्य (व्यापार), और पैरों से शूद्र — जो इस सम्पूर्ण संरचना का आधार है।
यहाँ शूद्र को समाज की नींव कहा गया है, न कि ‘अस्पृश्य’ या ‘हीन’।
“पद” वह भाग है, जो सबसे अधिक कार्य करता है, जो गति देता है।
शूद्र वह है जो समाज को चलाता है।
अध्याय 2: मनुस्मृति की गवाही — ‘शूद्र’ का धर्म सेवा है, तिरस्कार नहीं
“वैश्यस्य धनसंवृद्धिः, शूद्रस्य सेवा भवेत्।”
(मनुस्मृति 1.91)
भावार्थ:
जैसे वैश्य का धर्म धन संग्रह और व्यापार है, वैसे शूद्र का धर्म सेवा है —
पर सेवा का अर्थ भक्ति, कर्तव्य और समर्पण है,न कि किसी सामाजिक बहिष्कार की सजा।
“न शूद्राणां अधमत्वं न ब्राह्मणस्य उत्तमता। कर्मभिः जातयः ज्ञेया: सर्ववर्णे: परंतप।।”
(महाभारत, शांति पर्व)
यहां स्पष्ट कहा गया है कि कोई शूद्र जन्म से अधम नहीं, और कोई ब्राह्मण जन्म से महान नहीं — सबका मूल्य केवल कर्म से तय होता है।
अध्याय 3: अछूत शब्द का उद्भव — धर्म नहीं, सामाजिक अपराध था
“अस्पृश्यता” वेदों की देन नहीं, समाज की विकृति थी। यह वो दौर था जब सनातन की आत्मा पर सत्ता की परछाई गहराने लगी थी।
वेदों ने शूद्र को वर्जित नहीं किया,
उन्होंने उसे समाज का कार्यशील आधार माना।
लेकिन जब धर्म, सत्ता का औजार बन गया, तब ‘सेवक’ को ‘ग़ुलाम’ बना दिया गया।
और यह परिवर्तन धर्म नहीं, अधर्म था
जिसे संत रविदास, कबीर, गुरु नानक जैसे विचारकों ने फिर से उजागर किया।
अध्याय 4: शूद्रों के लिए वेद–पाठ निषेध — एक मिथ्या धारणा
“शूद्रः अपि द्विजसेवया ब्रह्मभवति संसिद्धः।”
(याज्ञवल्क्य स्मृति 1.118)
यह श्लोक कहता है कि यदि शूद्र सेवा और भक्ति से जीवन बिताता है,
तो वह भी ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है।
क्या कोई ‘अछूत’ ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है?
यह विचार ही इस भ्रम को तोड़ देता है।
अध्याय 5: कब बदली परिभाषा — और क्यों?
मुग़ल और फिर अंग्रेज़ काल में ‘जाति’ को क़ानूनी, सामाजिक और शासन के आधार पर स्थापित किया गया।
शूद्रों की सामाजिक भूमिका को धार्मिक ‘कुर्सी’ पर बैठे लोगों ने कुचलना शुरू किया।
सेवा करने वाले को सेवा का अधिकारी नहीं माना गया —
यह धर्म की नहीं, सत्ता की चाल थी।
अध्याय 6: आधुनिक पुनर्पाठ — जागरण का समय
जब संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने वेदों की ओर देखा,
तो उन्हें शूद्रों के लिए ‘अछूत’ जैसी कोई संकल्पना नहीं मिली।
उन्हें जो मिला, वह था — ‘आत्मा की प्यास’, ‘सेवा का धर्म’ और ‘कर्म की प्रतिष्ठा’।
आज जब हम “दलित” शब्द को पहचान दे रहे हैं,
तो क्या यह समय नहीं कि ‘शूद्र’ शब्द को उसकी वास्तविक प्रतिष्ठा वापस दी जाए? सेवा सबसे बड़ी शक्ति है — और शूद्र उसका स्वरूप शूद्र’ केवल वर्ण नहीं था — वह कर्तव्य था।
‘शूद्र’ केवल सेवक नहीं था — वह समाज की चेतना का वह हिस्सा था,
जो बिना नाम के भी सम्पूर्ण संरचना को संभालता था।
“अधिकार छीनने से नहीं, सेवा से बनता है।”
“शब्द बदले जा सकते हैं, पर सत्य नहीं।”
“शूद्र वह है जो झुकता नहीं — जो समाज को उठाता है।”
आखिर मिटेगा जातिवाद?