आयुर्वेद का सफर: वैश्विक बाजार में संभावनाएं और चुनौतियां

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लेखिका भगवती बल्दवा

लोक टुडे न्यूज़ नेटवर्क

हज़ारों साल पहले भारत में जन्मी आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति आज दुनियाभर में लोकप्रियता की नई ऊंचाइयां छू रही है। एलोपैथिक चिकित्सा के बढ़ते खर्चों के बीच, प्राकृतिक और समग्र उपचार के रूप में आयुर्वेद की उपयोगिता दिन-ब-दिन बढ़ रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था में भी इसका बड़ा योगदान है। मौजूदा समय में भारत का आयुर्वेदिक बाजार करीब 7 बिलियन डॉलर (लगभग ₹58,500 करोड़) के बराबर है, और यह 2028 तक 16.2 बिलियन डॉलर (₹1.2 लाख करोड़) तक पहुंचने का अनुमान है। हालांकि, इसके विकास को एक मजबूत सरकारी सहयोग की आवश्यकता है, विशेष रूप से शोध और क्लिनिकल ट्रायल्स के क्षेत्र में, ताकि आयुर्वेद अपने लाभकारी गुणों को साबित कर सके।

आयुर्वेद को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चुनौतियां

आयुर्वेद को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जहां कड़े नियामक नियम और फार्मास्यूटिकल उद्योग के गहरे प्रभाव इसे आगे बढ़ने में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। आयुर्वेद को एक और मुश्किल चीन की पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली (टीसीएम) के साथ प्रतिस्पर्धा से भी है, जो आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण और क्लिनिकल रिसर्च को अपनाकर आगे बढ़ रही है। अमेरिका में टीसीएम चिकित्सकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, जो दर्शाता है कि इस क्षेत्र में आयुर्वेद को अभी बहुत लंबा सफर तय करना है। वैश्विक हर्बल बाजार की बात करें, तो इसका मूल्य करीब 120 बिलियन डॉलर है, लेकिन इसमें भारत की हिस्सेदारी केवल 2.8% के आसपास है। दूसरी ओर, चीन ने अपने ठोस इकोसिस्टम और सरकारी सहयोग के बल पर इस बाजार का 13% से अधिक हिस्सा अपने कब्जे में कर लिया है। भारतीय आयुर्वेदिक उत्पादों का निर्यात मुख्य रूप से सूखी जड़ी-बूटियों और औषधीय पौधों के कच्चे अर्क तक सीमित है, जबकि चीनी चिकित्सा प्रणाली ने खासकर पश्चिमी देशों में व्यापक मान्यता प्राप्त कर ली है।

भारतीय आयुर्वेदिक उत्पादों को चीन की कड़ी चुनौती

भारतीय आयुर्वेदिक उत्पाद अमेरिका, यूरोपीय और खाड़ी देशों में विशेष रूप से निर्यात किए जाते हैं, लेकिन यहां की कड़ी नियामक आवश्यकताओं और फार्मास्यूटिकल लॉबी या कहें कि फार्मा माफिया के दबाव के कारण बाजार में पैर जमाना आसान नहीं है। कई भारतीय उत्पादों पर चीन के दखल और फार्मा लॉबी के प्रभाव के चलते प्रतिबंध भी लगाए जा चुके हैं। वहीं दूसरी ओर आयुर्वेद के सामने एक और गंभीर समस्या है भारतीय पारंपरिक औषधियों के बौद्धिक संपदा अधिकारों पर कब्जा। पिछले कुछ दशकों में हल्दी और नीम जैसी औषधियों पर पेटेंट का प्रयास किया गया, जो भारत के पारंपरिक ज्ञान का हिस्सा रही हैं। हालांकि, मई 2024 में लागू होने वाली वैश्विक बायोपाइरेसी संधि से इस समस्या का समाधान संभव है। इस संधि के तहत 190 से अधिक देशों ने पारंपरिक ज्ञान और आनुवंशिक संसाधनों के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए समझौता किया है। इससे भारत के हजारों साल पुराने आयुर्वेदिक ज्ञान को वैश्विक स्तर पर एक बड़ा अवसर मिल सकता है।

 

औषधीय पौधों और वनस्पतिक उत्पादों का वैश्विक व्यापार 5-15% की वार्षिक दर से बढ़ा

विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, औषधीय पौधों और वनस्पतिक उत्पादों का वैश्विक व्यापार 5-15% की वार्षिक दर से बढ़ रहा है। न्यूट्रास्युटिकल क्षेत्र भी खासकर पश्चिमी देशों में तेजी से लोकप्रिय हो रहा है। न्यूट्रास्यूटिकल्स का मतलब ऐसे उत्पाद हैं जो दवाइयों, आहार और पूरक आहार के रूप में काम आते हैं। कोविड-19 के बाद, विशेष रूप से इम्यूनिटी बढ़ाने वाले न्यूट्रास्यूटिकल उत्पादों की मांग बढ़ी है। वर्तमान में, न्यूट्रास्युटिकल बाजार में अमेरिका, जापान और यूरोप का वर्चस्व है। भारत में, एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार, 10 में से 7 लोग किसी न किसी रूप में न्यूट्रास्यूटिकल्स का इस्तेमाल कर रहे हैं। भारतीय आयुष बाजार में राजस्व हिस्सेदारी की बात करें तो 42.3% न्यूट्रास्युटिकल, 30% फार्मास्यूटिकल, और 13.8% हर्बल पौधों से आती है। देश में करीब 9,000 पंजीकृत आयुष मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स हैं, जिनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है। पिछले एक दशक में इस इंडस्ट्री ने छह गुना विकास किया है; 2015 में ₹21,697 करोड़ से बढ़कर 2022 में ₹1.4 लाख करोड़ का आकार ले चुकी है। यदि आयुष सेवाओं को भी शामिल किया जाए तो यह इंडस्ट्री ₹3.6 लाख करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी है। यह तेजी केंद्र सरकार की मजबूत नीतियों और 900 से अधिक स्टार्टअप्स के योगदान के कारण संभव हुई है। वर्ष 2025 तक भारतीय न्यूट्रास्युटिकल बाजार के $18 बिलियन तक पहुंचने का अनुमान है।

कोविड- 19 के बाद बढ़ा आयुर्वेद का विश्वास

आज न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों से स्वास्थ्य को बनाए रखने और उपचार की सोच को लेकर जागरूकता बढ़ रही है। कोविड-19 के बाद आयुर्वेद में लोगों का विश्वास और भी मजबूत हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की जानकारी के अनुसार, इसके 194 सदस्य देशों में से लगभग 170 देशों में पारंपरिक औषधियों का उपयोग हो सकता है। हालांकि व्यापक उपयोग के बावजूद, मजबूत वैज्ञानिक प्रमाणों, डेटा आधारित शोध और मुख्यधारा की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में मानकीकृत ढांचे की कमी के कारण चुनौतियां बनी हुई हैं। डब्ल्यूएचओ द्वारा 2022 में ग्लोबल सेंटर फॉर ट्रेडिशनल मेडिसिन की स्थापना के साथ ही, आयुर्वेद की इस सबसे बड़ी समस्या के समाधान की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया है। भारत सरकार ने आयुर्वेद को बढ़ावा देने के लिए 2024-25 के बजट में ₹3,712 करोड़ का प्रावधान किया है, जो 2015 के ₹1,272 करोड़ के मुकाबले तीन गुना अधिक है। यह निवेश भारत को वैश्विक स्तर पर आयुर्वेद को प्रमुख चिकित्सा प्रणाली के रूप में स्थापित करने का एक सुनहरा अवसर प्रदान करता है।

(लेखिका भगवती बल्दवा आयुर्वेदिक यूनिकॉर्न कंपनी एक्जोरियल बायोमेड की संस्थापक और श्री कार्तिके ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज की सीएमडी है)

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